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इ॒दा हि वो॑ विध॒ते रत्न॒मस्ती॒दा वी॒राय॑ दा॒शुष॑ उषासः। इ॒दा विप्रा॑य॒ जर॑ते॒ यदु॒क्था नि ष्म॒ माव॑ते वहथा पु॒रा चि॑त् ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

idā hi vo vidhate ratnam astīdā vīrāya dāśuṣa uṣāsaḥ | idā viprāya jarate yad ukthā ni ṣma māvate vahathā purā cit ||

पद पाठ

इ॒दा। हि। वः॒। वि॒ध॒ते। रत्न॑म्। अस्ति॑। इ॒दा। वी॒राय॑। दाशुषे॑। उ॒ष॒सः॒। इ॒दा। विप्रा॑य। जर॑ते। यत्। उ॒क्था। नि। स्म॒। माऽव॑ते। व॒ह॒थ॒। पु॒रा। चि॒त् ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:65» मन्त्र:4 | अष्टक:5» अध्याय:1» वर्ग:6» मन्त्र:4 | मण्डल:6» अनुवाक:6» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे कैसी हों, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे वीरपुरुषो ! जैसे (उषासः) उषाकाल, उन्हीं के समान वर्त्तमान भार्याओं को जो प्राप्त होओ तो (इदा) अब (हि) ही (वः) तुमको (विधते) सेवन करते हुए के लिये (रत्नम्) रमणीय धन (अस्ति) विद्यमान है वा (इदा) अब (दाशुषे) देते हुए (वीराय) बलिष्ठ जन के लिये और (इदा) अब (जरते) स्तुति करनेवाले (विप्राय) मेधावी पुरुष के लिये (मावते) जो मेरे सदृश है, उसके लिये (पुरा) पहिले (चित्) भी (यत्) जो (उक्था) कहने के योग्य वचन हैं (स्म) उन्हीं को (नि, वहथा) निवाहो ॥४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जो उषा के समान वर्त्तमान भार्यायें तुम लोगों को प्राप्त हों तो इसी जन्म में सब सुख तुम लोगों को प्राप्त हों, क्योंकि अविरोध से वर्त्तमान स्त्री-पुरुषों को सदैव यश प्राप्त होते हैं ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्ताः कीदृश्यो भवेयुरित्याह ॥

अन्वय:

हे वीरपुरुषा ! यथोषासस्तथैव वर्त्तमाना भार्या यदि प्राप्नुत तदेदा हि वो विधते रत्नमस्तीदा दाशुषे वीरायेदा जरते विप्राय मावते पुरा चिद्यदुक्थाः सन्ति तानि स्म चिन्नि वहथा ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इदा) इदानीम् (हि) यतः (वः) युष्मान् (विधते) परिचरते (रत्नम्) रमणीयं धनम् (अस्ति) (इदा) इदानीम् (वीराय) बलिष्ठाय जनाय (दाशुषे) दात्रे (उषासः) उषर्वद्वर्त्तमानाः (इदा) इदानीम् (विप्राय) मेधाविने (जरते) स्तावकाय (यत्) यानि (उक्था) वचनानि (नि) नित्यम् (स्म) एव (मावते) मत्सदृशाय (वहथा) प्राप्नुथ। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (पुरा) पुरस्तात् (चित्) अपि ॥४॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! या उषर्वद्वर्त्तमाना भार्या युष्मान् प्राप्नुयुस्तर्ह्यस्मिन्नेव जन्मनि सर्वाणि सुखानि भवतः प्राप्नुयुरविरोधेन वर्त्तमानान् स्त्रीपुरुषान् सदैव यशांसि प्राप्नुवन्ति ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जर तुम्हाला उषेप्रमाणे भार्या मिळाल्या तर याच जन्मी तुम्हाला सुख मिळेल. कारण विरोध नसेल तर स्त्री-पुरुषांना सदैव यश प्राप्त होते. ॥ ४ ॥